“प्रतिष्ठा…

अपनी पत्नी को खो देने के बाद ना चाहते हुए भी मनोहर बाबू को उनके बेटे बहु शहर ले आएं शायद बिरादरी का दबाव था या समाज में अपनी छवि का ….
यहां आकर मनोहर बाबू को अक्सर तानों से सामना करना पड़ता था… क्या पापाजी आप ठीक से खाना भी नहीं खा सकते देखिए कितना गिरा दिया टेबल पर….
क्या पापा कम से कम बाथरूम में पानी तो ठीक से डाल दिया करो कितनी गंदगी छोड़ दी….
मनोहर बाबू भरसक कोशिश करते की बेटा बहु को शिकायत का कोई मौका नहीं दें मगर साठ पार की उम्र में कंपकंपाते हाथ कम दिखाई देती नजरें अक्सर धोखा दे जाती थी वह चुपचाप रह जाते थे कभी कभी तो मन करता इससे अच्छा तो गांव में अकेले रहकर भूखे या घुटघुटकर मर जाता मगर फिर अपने बेटे की प्रतिष्ठा का ख्याल आता तो सिसककर रह जाते पहले जैसे तैसे उनकी पत्नी के साथ कट जाती थी कुछ वो तो कुछ मनोहर बाबू साथ देते हुए गुजर बसर कर लेते थे मगर अब वो भी उन्हें अकेला छोड़कर चली गई थी…..
यहां रुकने की एक वजह और भी थी उनका पोता….वो कहते है ना मूल से ब्याज ज्यादा प्यारी लगती है तो बस उन्हें अपने पोते से प्यार और उसके साथ सुबह शाम पार्क में समय व्यतीत करना अच्छा लगता था
आज भी सुबह सुबह बहु ने जोरदार लताड़ लगाई थी नाश्ते पर बेचारे ठीक से नाश्ता भी नहीं कर पाए थे पार्क की बैंच पर बैठें हुए अपने दादाजी को भीगी हुई पलकों को साफ करते हुए देखकर नन्हे केशव ने उनके आंसुओं को पोंछते हुए पूछा…. दादाजी…. हम इंसान बूढ़े क्युं हो जाते है… पोते केशव की बात सुनकर मनोहर बाबू कुछ देर उसे निहारते रहे फिर अपने आसपास नजरें घुमाने लगे आसपास बच्चों से लेकर जवान बुजुर्ग सभी नजर आ रहे थे उनकी आँखों में उनके बचपन से लेकर उनके बुढ़ापे तक का पूरा सफर तैर गया
अपनी भीगी आँखे और कंपकंपाती जुबान से इतना ही बोल पाएं…..ताकि.. हमारे मरने पर..किसी को कोई अफसोस ना हो….
“दोस्तों जब से लोग बुज़ुर्गों की इज्जत कम करने लगे,
तब से लोग दामन में दुयाएं कम, दवाएं ज्यादा भरने लगे…”

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