एक लोटा गंगा जल

एक बार एक साधु देवनदी गंगा जी के किनारे रामायण से सत्संग कर रहे थे, तो उन्होंने एक चौपाई बोली-

*ईश्वर अंश जीव अविनाशी ।*
*चेतन अमल सहज सुखराशी ॥*

तो सत्संग सुनने वालों में से एक व्यक्ति ने आगे आकर उन साधु से कहा ,” महाराज ! ईश्वर तो सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है और हर्ष-शोक से परे है । परन्तु जीव तो अल्प-सामर्थ्य वाला है, तो फिर इस अनेकता के रहते एकता कैसी ? ”

यह सुनकर साधु मुस्कुराये और उस व्यक्ति से बोले ,” बेटा ! जाओ गंगा जी एक लौटा जल भर लाओ ।”

वह व्यक्ति उसी समय गंगा जी से एक लोटा जल भर लाया।

फिर उन साधु ने उस व्यक्ति से पूछा ,” बेटा ! अच्छा, ये बताओ कि गंगा जी के जल में और इस लोटे के जल में कोई अंतर है ? ”

उस व्यक्ति ने उत्तर दिया ,” नहीं , यह दोनों ही गंगा जल हैं और दोनों के गुण भी एक ही समान हैं । ”

उन साधु ने पूछा ,” अच्छा फिर ये बताओ कि गंगा जी में तो नाव ( किश्ती ) चलती है, क्या इस लौटे के जल में भी नाव चल सकती है ? ”

वह व्यक्ति, उन साधु की बात सुनकर उनके मुँह की तरफ देखता रह गया।

तब साधु गंभीर होकर बोले ,” बेटा ! जीव भी एक छोटे दायरे में बंधा होने के कारण इस लौटे के जल के समान है। उस बन्धन के कारण ही वह अल्प-समर्था है। जैसे इस लोटे के जल को फिर से गंगा जी में डाल देने पर इसमें नाव चलने लगेगी। ठीक इसी प्रकार जैसे ही जीवात्मा अपनी माया के बन्धन को तोड़ कर निर्मल हो जाता है तो अपने ईश्वर रूपी स्वरूप आत्मा से प्रकाशित हो जाता है, और फिर से मल रहित और सहज ही सुख की राशि हो जाता है। ”

*तात्पर्य यह है कि जीवात्मा चेतन और सूक्ष्म है और परमात्मा चेतन और अतिसूक्ष्म है इसलिये परमात्मा जीवात्मा के अन्दर विद्यमान है और व्यापक है I जीवात्मा जब तक मलीन है तब तक ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर पाता किन्तु जब अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और अंतर्मन से परमात्मा में ध्यान केन्द्रित करता है तो मिलन हो जाता है और जो परम अनुभूति होती है वही मोक्ष है I*

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