एक दार्शनिक, एक तार्किक, एक महापंडित सुबह-सुबह तेल खरीदने तेली की दुकान पर गये।
जब तक तेली ने तेल तौला, दार्शनिक , तार्किक और महापंडित विचारक तीनों के मन में यह सवाल उठा, ”उस तेली के पीछे ही कोल्हू में बैल चल रहा है, तेल पेरा जा रहा है। न तो उसे कोई चलाने वाला है, न कोई उसे हांक रहा है, फिर यह बैल रुक क्यों नहीं जाता? फिर यह कोल्हू का बैल तेल पेरे जा रहा है?
उन्होंने तेली से पूछा कि भाई मेरे, यह राज मुझे समझाओ,”न कोई हांकता, न कोई कोल्हू के बैल के पीछे पड़ा है, यह दिन-रात चलता ही रहता, चलता ही रहता, रुकता भी नहीं।
उस तेली ने कहा,”जरा गौर से देखो, उपाय किया गया है, उसकी आंख पर पट्टियां बंधी हैं।जैसे तांगे में चलने वाले घोड़े की आंख पर पट्टियां बांध देते हैं, ताकि उसे सिर्फ सामने दिखाई पड़े। इधर-उधर दिखाई पड़े तो झंझट हो। रास्ते के किनारे घास उगा है तो वह घास की तरफ जाने लगे, इस रास्ते की तरफ नदी की धार बह रही है तो वह पानी पीने जाने लगे। उसे अग़ल बग़ल कहीं कुछ नहीं दिखाई पड़ता, उसे सिर्फ सामने रास्ता दिखाई पड़ता है।”
उस तेली ने कहा,” कोल्हू के बैल की आंख पर पट्टियां बांधी हुई हैं।”
विचारक तो विचारक, उसने कहा वह तो मैंने देखा कि उस पट्टी की वजह से उसे पता नहीं चलता कि गोल-गोल घूम रहा है। पट्टियां तो मुझे दिखाई पड़ती हैं, ठीक वैसे ही जैसे हर आदमी की आंख पर पट्टियां बंधी हैं। मगर फिर भी मैं यह पूछता हूं कि पट्टियां तो बंधी हैं, कोई हांक तो नहीं रहा है, यह चलता क्यों है? रुक क्यों नहीं जाता? और तेरी तो पीठ इसकी तरफ है।
उसने कहा,”जरा गौर से देखो, मैंने इसके गले में एक घंटी बांध दी है। जब तक इसकी घंटी बजती रहती है, मैं समझता हूं कि बैल चल रहा है। जैसे ही इसकी घंटी बजना रुकती है, उछलकर मैं जाकर इसको हांक देता हूं। इसको कभी पता नहीं चल पाता कि हांकने वाला पीछे है कि नहीं। इधर घंटी रुकी और मैंने हांका। यह कोड़ा देखते हो बगल में रखा है, यहीं बैठे-बैठे फटकार देता हूं तो भी यह चल पड़ता है।”
विचारक तो विचारक, उसने कहा,”यह भी मैं समझा। घंटी भी सुनाई पड़ रही है मुझे। यह भी तूने खूब तरकीब की। लेकिन मैं यह पूछता हूं कि यह बैल खड़ा होकर और गला हिलाकर घंटी तो बजा सकता है।”
तेली ने कहा,”धीरे-धीरे! आहिस्ता बोलो, कहीं बैल सुन ले तो मेरी मुसीबत हो जाये। तुम जल्दी अपना तेल लो और रास्ते पर लगो। बैल न सुन ले कहीं तुम्हारी बात। यह बैल इतना तार्किक नहीं है। बैल सीधा-सादा बैल है। यह कोई दार्शनिक नहीं है, यह इतना गणित नहीं समझ सकता कि खड़े होकर गला हिलाने लगे। यह तो सिर्फ कोई चालबाज आदमी ही कर सकता है।”
साधारण आदमी तो कोल्हू का बैल है, चलता जाता है। उसकी आंखों पर पट्टियां बंधी हैं। उसे ठीक-ठीक दिखाई नहीं पड़ता कि गोल घेरे में चल रहा है, नहीं तो रुक जाए।
👉 *तुम वही करते हो सुबह रोज, वही दोपहर, वही सांझ, वही रात, जो तुम सदा करते रहे हो। तुम्हें कभी ख्याल में आया कि तुम एक गोले में घूम रहे हो?*
👉 *वही क्रोध, वही काम, वही लोभ, वही मोह, वही अहंकार। तुम्हारे सुख और तुम्हारे दुख, सब पुराने हैं। वही तो तुम कितनी बार कर चुके हो, और उन्हीं की तुम फिर मांग करते हो, फिर-फिर मांगते हो। तुम गोल गोले में घूम रहे हो और सोचते हो तुम्हारी जिंदगी यात्रा है?*
👉 *जरा एक वर्ष का अपना हिसाब तो लगाओ, जरा डायरी तो लिखनी शुरू करो कि मैं रोज-रोज क्या करता हूं। और चार-छह महीने में तुम खुद ही चकित हो जाओगे। यह जिंदगी तो कोल्हू के बैल की जिंदगी है। यह तो मैं रोज ही रोज करता हूं। वही झगड़ा, वही फसाद, फिर वही दोस्ती, फिर वही दुश्मनी। तुम्हारे संबंध, तुम्हारा जीवन, तुम्हारे रंग-ढंग, सब गोलाकार हैं। इसलिए तुम्हारी जिंदगी में कोई निष्कर्ष आने वाला नहीं है। तुम कहीं पहुंचोगे नहीं। तुम चलते-चलते मर जाओगे, और फिर किसी गर्भ में पैदा होकर चलने लगोगे।*
👉 *इसलिए हमने इस गोलाकार चक्कर का ही नाम संसार दिया है। संसार शब्द का अर्थ होता है, चाक, जो चाक की तरह घूमता रहे! तुम्हारी जिंदगी एक चाक की तरह घूम रही है। इसलिए ज्ञानी पूछते हैं, इस आवागमन से छुटकारा कैसे हो? इस चाक से हमारा छुटकारा कैसे हो? यह जो संसार का चक्र है, जिसमें हम उलझ गए हैं।*
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