टीवी धारावाहिक

कल गलती से मैं, एक टीवी धारावाहिक देखने बैठ गया..!!

 

सच बताऊं तो उन 10- 15 मिनट में उन नाट्य कलाक़ारों की आपसी बातें सुनकर मेरे कान ही नहीं बल्कि पूरे दिमाग़ में भूचाल सा आ गया ! अरे, ये कैसे डेली एपिसोड आने लगे है आजकल … दिमाग़ को बिल्कुल पिसोड़ कर रख दिया.!!

 

कलाक़ारो का ड्रेस अप औऱ मेकअप तो देखो यार … पता ही नहीं पड़ता कौन माँ है औऱ कौन पत्नी.!!

 

नकली गहनों , बड़ी बड़ी बिंदियों औऱ महंगी साड़ियों से लदालद उन औरतों के हाव भाव तो देखिए .. बेहद नकारात्मक औऱ पारिवारिक षड़यंत्र में पारंगत .!!

 

एक दिन छोड़कर एक दिन पार्टी , वो भी घर में ही !.!

 

जबकि असल जिंदगी में घर में सौ आदमियों का खाना करने में रुपयों के बारह बज जाते है औऱ हफ्ते तक थकान रहती है जो अलग !!

 

औऱ अतिश्योक्ति तो देखिए ..बड़ी बड़ी आलीशान कोठियों में रहकर भी कुछेक हजार रुपयों के लिए पूरे परिवार में इतनी उथल पुथल मच जाती है कि उस इमोशनल सीन को देखकर हम आम लोगों की भी हँसी फूट पड़े !!

 

दिन भर उन अमीर घरों का पुरुष समुदाय भी घर पर ही पड़ा रहता है औऱ महिला वर्ग की एक एक बातों में संलग्न रहता है .!!

 

बोलने को तो कई फैक्ट्रीयों, जमीनों, बंगलों औऱ प्रॉपर्टियों के मालिक है , पर मजाल है एक दिन भी ऑफिस चले जाएं ! कितने निट्ठल्ले अमीर दिखाते है ये धारावाहिक वाले , जबकि असली अमीरों को तो हकीकत में रोटी खाने की भी फुर्सत नहीं मिलती !!

 

डायलॉग तो देखो… जो बोल रहा है वो चुप होने का नाम ही नहीं लेता , औऱ चुप भी हो जाएं तो फिर मन ही मन में बोलने वाले डायलॉग तो चालू ही रहते है !!

 

अरे भाई.. असल जिंदगी में अपने मन में इतना कौन बोलता है ! आँखें देखना इनकी… आधा काम तो ये ही कर जाती है ! काजल चोपड़ कर आँखों को ऐसी कुटिल बना देते है कि देखते ही जिंदा फाड़ खाये !!

 

क्या पता कौन मर रहा है , जिंदा हो रहा है.. एक सीन में घायल दिखाते है तो दूसरे ही सीन में पार्टी में एन्जॉय करते हुए ! सीढियों से गिरने वाले सीन तो आपने भी देखे होंगे .. पूरे दस मिनट लगा देते है नीचे तक गिरने में !!

 

आओ कमरों की तरफ चलते है… सब कमरों के मेन गेट में ऊपर की तरफ पारदर्शी कांच औऱ खुली खिड़कियों में झूलते परदे हर नाटक में जरूर मिलते है , ताकि उन परदों की आड़ में खड़े होकर अंदर का सब कुछ सुना औऱ देखा जा सके !!

 

हट…पेंचो..

 

ऐसा थोड़े ही होता है यार , किसी चीज की हद भी होती है ! बाहर खड़े रहने वाले की कोहनी से फूलदान ना टूटे , ये तो हो ही नहीं सकता ! मजे की बात तो ये कि,आवाज होने के बाद सुनने वाला शख्स इस तरह से गायब होता है जैसे कोई जिन्न हो !!

 

हर घर में बुआ का , ननद का औऱ मामी मौसी का किरदार इतना नेगेटिव बताया जाता है कि,अब तो असल जिंदगी में भी कोई एक दूसरे के घर आने जाने से कतराने लगा है !!

 

किसी नाटक में बहू तेज तो किसी में सास !!

 

ससुर का रोल तो बस नये कपड़े पहनकर सोफे पर अख़बार पढ़ने में ही पूरा हो जाता है ! ससुर लोगों को तो डायलॉग डिलीवरी भी कम ही करनी पड़ती है … उनका काम केवल सुनना ही रखते है , जो भी आता है बेचारे बुजुर्ग को सुनाकर चला जाता है ! बस ये देख देखकर आज हमारे बुजुर्गो का हमने भी कमोबेश यही हाल कर छोड़ा है !!

 

किसी भी नाटक को देख लो… पति पत्नी को ज़ब तक आपस में नहीं लड़वा लेते , इन निर्माता निर्देशकों को चैन ही नहीं पड़ता !!

 

कोई इन निर्देशकों को पूछो तो सही कि ये इस देश को किधर ले जाना चाहते है , इस पीढ़ी को आखिर दिखाना क्या चाहते है..?

 

राम ही जाने..

Pawan Acharya

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