होलिका की बात करते हैं

होली नज़दीक है तो होलिका की बात करते हैं:-
भारत कृषी प्रधान देश है ,वैदिक भारत में जब फाल्गुन मास में फसल कटके आती थी तब आर्य घरों में उस फसल को सर्व प्रथम अग्निदेव को अर्पित करते थे जिसे होली या होरी कहते हैं । आज भी होलीमें धान्य अग्निको अर्पित किया जाता है ।
आज ही के दिन भक्त प्रवर प्रह्लाद जी को उनकी बुआ हिरण्यकश्यपु की अनुजा ने जीवित चितामें जलाने का प्रयास किया था ,किन्तु श्री हरिः ने प्रह्लादजी की रक्षा की ।
#वैसे_होलिका_से_हिरण्यकश्यप_की_बहन_का_कोई_सम्बन्ध_नहीं_है । होली या होरी अन्न को जलाने को कहते हैं और #हिरण्यकश्यप_की_बहन_सिंहिका_थी_होलिका_नहीं ।
प्रजापति कश्यपकी १३ पत्नियों में दिति सबसे बड़ी थीं । उनकी तीन सन्तान थीं हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष यमल सन्तान थे और कनिष्ठ सन्तान सिंहिका थी जिसका विवाह दनु पुत्र विप्रचित्ति के साथ हुआ था और #सिंहिका_का_पुत्र_राहु_है जो नवगृहों में दो रूपों राहु-केतु हैं ।
होली-(क) शब्द का अर्थ- इसका मूल रूप हुलहुली (शुभ अवसर की ध्वनि) है जो ऋ-ऋ-लृ का लगातार उच्चारण है। आकाश के ५ मण्डल हैं, जिनमें पूर्ण विश्व तथा ब्रह्माण्ड हमारे अनुभव से परे है। सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी का अनुभव होता है, जो शिव के ३ नेत्र हैं। इनके चिह्न ५ मूल स्वर हैं-अ, इ, उ, ऋ, लृ। शिव के ३ नेत्रों का स्मरण ही होली है।
अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्र सूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः। (मुण्डक उपनिषद्, २/१/४)
चन्द्रार्क वैश्वानर लोचनाय, तस्मै वकाराय नमः शिवाय (शिव पञ्चाक्षर स्तोत्र)
विजय के लिये उलुलय (होली) का उच्चारण होता है-
उद्धर्षतां मघवन् वाजिनान्युद वीराणां जयतामेतु घोषः।
पृथग् घोषा उलुलयः एतुमन्त उदीरताम्। (अथर्व ३/१९/६)
(ख) अग्नि का पुनः ज्वलन-सम्वत्सर रूपी अग्नि वर्ष के अन्त में खर्च हो जाती है, अतः उसे पुनः जलाते हैं, जो सम्वत्-दहन है-
अग्निर्जागार तमृचः कामयन्ते, अग्निर्जागार तमु सामानि यन्ति।
अग्निर्जागार तमयं सोम आह-तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः। (ऋक् ५/४४/१५)
यह फाल्गुन मास में फाल्गुन नक्षत्र (पूर्णिमा को) होता है, इस नक्षत्र का देवता इन्द्र है-
फाल्गुनीष्वग्नीऽआदधीत। एता वा इन्द्रनक्षत्रं यत् फाल्गुन्यः। अप्यस्य प्रतिनाम्न्यः। (शतपथ ब्राह्मण २/१/२/१२)
मुखं वा एतत् सम्वत्सररूपयत् फाल्गुनी पौर्णमासी। (शतपथ ब्राह्मण ६/२/२/१८)
सम्वत्सर ही अग्नि है जो ऋतुओं को धारण करता है-
सम्वत्सरः-एषोऽग्निः। स ऋतव्याभिः संहितः। सम्वत्सरमेवैतत्-ऋतुभिः-सन्तनोति, सन्दधाति। ता वै नाना समानोदर्काः। ऋतवो वाऽअसृज्यन्त। ते सृष्टा नानैवासन्। तेऽब्रुवन्-न वाऽइत्थं सन्तः शक्ष्यामः प्रजनयितुम्। रूपैः समायामेति। ते एकैकमृतुं रूपैः समायन्। तस्मादेकैकस्मिन्-ऋतौ सर्वेषां ऋतूनां रूपम्। (शतपथ ब्राह्मण ८/७/१/३,४)
जिस ऋतु में अग्नि फिर से बसती है वह वसन्त है-
यस्मिन् काले अग्निकणाः पार्थिवपदार्थेषु निवसन्तो भवन्ति, स कालः वसन्तः।
फल्गु = खाली, फांका। वर्ष अग्नि से खाली हो जाता है, अतः यह फाल्गुन मास है। अंग्रेजी में भी होली (Holy = शिव = शुभ) या हौलो (hollow = खाली) होता है।
वर्ष इस समय पूर्ण होता है अतः इसका अर्थ पूर्ण भी है। अग्नि जलने पर पुनः विविध (विचित्र) सृष्टि होती है, अतः प्रथम मास चैत्र है। आत्मा शरीर से गमन करती है उसे गय-प्राण कहते हैं। उसके बाग शरीर खाली (फल्गु) हो जाता है, अतः गया श्राद्ध फल्गु तट पर होता है।
(ग) कामना-काम (कामना) से ही सृष्टि होती है, अतः इससे वर्ष का आरम्भ करते हैं-
कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा॥ (ऋक् १०/१२९/४)
इस ऋतु में सौर किरण रूपी मधु से फल-फूल उत्पन्न होते हैं, अतः वसन्त को मधुमास भी कहते हैं-
(यजु ३७/१३) प्राणो वै मधु। (शतपथ ब्राह्मण १४/१/३/३०) = प्राण ही मधु है।
(यजु ११/३८) रसो वै मधु। (शतपथ ब्राह्मण ६/४/३/२, ७/५/१/४) = रस ही मधु है।
अपो देवा मधुमतीरगृम्भणन्नित्यपो देवा रसवतीरगृह्णन्नित्येवैतदाह। (शतपथ ब्राह्मण ५/३/४/३)
= अप् (ब्रह्माण्ड) के देव सूर्य से मधु पाते हैं।
ओषधि (जो प्रति वर्ष फलने के बाद नष्ट होते हैं) का रस मधु है-ओषधीनां वाऽएष परमो रसो यन्मधु। (शतपथ ब्राह्मण २/५/४/१८) परमं वा एतदन्नाद्यं यन्मधु। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १३/११/१७)
सर्वं वाऽइदं मधु यदिदं किं च। (शतपथ ब्राह्मण ३/७/१/११, १४/१/३/१३)
हम हर रूप में मधु की कामना करते हैं-
मधु वाता ऋतायते, मधु क्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः॥६॥
मधुनक्तमुतोषसो, मधुमत् पार्थिवं रजः। मधु द्यौरस्तु नः पिता॥७॥
मधुमान्नो वनस्पति- र्मधुमाँ अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥८॥ (ऋक् १/९०)
= मौसमी हवा (वाता ऋता) मधु दे, नदियां मधु बहायें, हमारी ओषधि मधु भरी हों। रात्रि तथा उषा मधु दें, पृथ्वी, आकाश मधु से भरे हों। वनस्पति, सूर्य, गायें मधु दें।
मधुमतीरोषधीर्द्याव आपो मधुमन्नो अन्तरिक्षम्।
क्षेत्रस्य पतिर्मधुमन्नो अस्त्वरिष्यन्तो अन्वेनं चरेम॥ (ऋक् ४/५७/३)
= ओषधि, आकाश, जल, अन्तरिक्ष, किसान-सभी मधु युक्त हों।
(घ) दोल-पूर्णिमा-वर्ष का चक्र दोलन (झूला) है जिसमें सूर्य-चन्द्र रूपी २ बच्चे खेल रहे हैं, जिस दिन यह दोल पूर्ण होता है वह दोल-पूर्णिमा है-
यास्ते पूषन् नावो अन्तः समुद्रे हिरण्मयीरन्तरिक्षे चरन्ति।
ताभिर्यासि दूत्यां सूर्य्यस्य कामेन कृतश्रव इच्छमानः॥ (ऋक् ६/५८/३)
पूर्वापरं चरतो माययैतै शिशू क्रीडन्तौ परि यन्तो अध्वरम् (सम्वत्सरम्) ।
विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूरन्यो विदधज्जायते पुनः॥ (ऋक् १०/८५/१८)
कृष्ण (Blackhole) से आकर्षित हो लोक (galaxy) वर्तमान है, उस अमृत लोक से सूर्य उत्पन्न होता है जिसका तेज पृथ्वी के मर्त्य जीवों का पालन करता है। वह रथ पर घूम कर लोकों का निरीक्षण करता है-
आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्। (ऋक् १/३५/२, यजु ३३/४३)
(ङ) विषुव संक्रान्ति-होली के समय सूर्य उत्तरायण गति में विषुव को पार करता है। इस दिन सभी स्थानों पर दिन-रात बराबर होते हैं। दिन रात्रि का अन्तर, या इस रेखा का अक्षांश शून्य (विषुव) है, अतः इसे विषुव रेखा कहते हैं। इसको पार करना संक्रान्ति है जिससे नया वर्ष होली के बाद शुरु होगा ।
अंत में पुनः #सभी_सनातनियों_को_मंगलमय_जीवन_हेतु_शमसानी_औघड़_की_ढेरों_शुभकामनायें 💐 🌷🌹🙌
💀#शमसानी_औघड़_हिन्दू💀

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