उस दिन ट्रेन लेट होकर रात्रि 12 बजे पहुँची।
बाहर एक वृद्ध रिक्शावाला ही दिखा जिसे कई यात्री जान बूझकर छोड़ गए थे। एक बार मेरे मन में भी आया, इससे चलना पाप होगा, फिर मजबूरी में उसी को बुलाया, वह भी बिना कुछ पूछे चल दिया।
कुछ दूर चलने के बाद ओवरब्रिज की चढ़ाई थी, तब जाकर पता चला, उसका एक ही हाथ था। मैंने सहानुभूतिवश पूछा, ‘‘एक हाथ से रिक्शा चलाने में बहुत ही परेशानी होती होगी?’’
‘‘बिल्कुल नहीं बाबूजी, शुरू में कुछ दिन हुई थी।’’
रात के सन्नाटे में वह एक ही हाथ से रिक्शा खींचते हुए पसीने-पसीने हो रहा था । मैंने पूछा, ‘एक हाथ की क्या कहानी है?’’
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वह बोला, ‘‘गाँव में खेत के बँटवारे में रंजिश हो गई, वे लोग दबंग और अपराधी स्वभाव के थे, मुकदमा उठाने के लिए दबाव डालने लगे।’’ वह कुछ गम्भीर हो गया और आगे की बात बताने से कतराने लगा, किन्तु मेरी उत्सुकता के आगे वह विवश हो गया और बताया, ‘‘एक रात जब मैं खलिहान में सो रहा था,
जान मारने की नीयत से मुझ पर वार किया गया।
संयोग से वह गड़ासा गर्दन पर गिरने के बजाए हाथ पर गिरा और वह कट गया।’’
‘‘क्या दिन की मजदूरी से काम नहीं चलता जो इस उम्र में रात में रिक्शा चला रहे हो?’’ मुझे उस पर दया आई।
‘‘रात्रि में भीड़ कम होती है जिससे रिक्शा चलाने में आसानी होती है।’’ उसने धीरे से कहा।
उसकी विवशता समझकर घर पर मैंने पाँच रूपए के बजाए दस रुपए दिए।
सीढियां चढ़कर दरवाजा खुलवा ही रहा था कि वह भी हाँफते हुए पहुँचा और पाँच रुपए का नोट वापस करते हुए बोला, ‘‘आपने ज्यादा दे दिया था।’’
‘‘आपकी अवस्था देखकर और रात की मेहनत सोचकर कोई अधिक नहीं है, मैं खुशी से दे रहा हूँ।’’
उसने जवाब दिया, ‘‘मेरी प्रतिज्ञा है एक हाथ के रहते हुए भी दया की भीख नहीं लूँगा, तन ही बूढ़ा हुआ है मन नहीं।’
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